Ret Samadhi (Hindi Edition)
L**N
A Gem of a NovelThe ansh
The answer to the question as to what I liked about this book is simple: What is there not to like? A beautiful, beautiful story inhabited with lovely, lovable characters, told in a language that weaves a magical, unbelievably unreal world that is no less real and believable at the same time! In short, a Gem of a Novel!Gulshan Madhur
V**I
why write
I don’t get the point why the author wrote such a disjointed story for what purpose. There is no protagonist no clear characters to follow. I am baffled it won the booker prize for what. It is so abstract but not interesting. Difficult to read waste of time it is only my opinion.
J**H
Beauty of written words
I started reading the novel after hearing about it's winning the booker prize. I opted for the original Hindi version as I think the emotions are well expressed in the original version as intended by the author. I must say it is the most difficult Hindi language book I have ever read. But soon I was immersed in the complexity of the narrative. It is definitely a poem written in prose form. I congratulate the author for her imagination and wandering in her writings. Everything in the novel has its opinion whether they are living or nonliving, human or animal. I loved it.One warning : few pages are missing and few pages are repeated. Don't buy from this seller.
S**A
Very different story
Very difficult to read book , Hindi language not easy to understand.
P**N
Nice quality
Good quality book
A**R
Less engaging for me than expected
According to me, the novel is a little bit complicated for me to understand and imagine the scenes. Due to continuous communication and punctuation, I was very confused with reading style. If you are a new reader in this type of novel like Ret Samadhi, take sometime to make flow of your mind to go inside the ongoing story in your own way of imagination with floating words of the novel.
K**A
BOOK REVIEW- RET SAMADHI
उसने इंग्लिश वाला ख़रीदा था. देखा तो बोला मैं तो हिंदी जानता हूँ. थोड़ी बहुत आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी वाली और बहुत सारी दूसरों वाली. राष्ट्रीय भाषा दिवस वाली हिंदी.गली मोहल्ले, पाड़े, सड़क, राजमार्ग, ट्रेन, बस, इक्के, ई- रिक्शा, मैनपुरी, इगतपुरी, चाणक्यपुरी, शिवपुरी, हैदराबाद, कलकत्ता, साउथ दिल्ली, लक्ष्मी नगर, राजकमल, हिन्द पॉकेट, भाषणबाजी, लेक्चर, गाली, मूवी, छंदाकलन समाचार, कामरोको प्रस्ताव, गप्पूटेशन और मुहावरे वाली हिंदी. ख़रीदा. पहले कुछ पन्ने बोरिंग लगे, फिर फनी और उसके बाद तो जैसे मोहल्ले वाले दोस्त मिल कर किस्सागोई कर रहे हों एक परिवार पर. तेरी मेरी उसकी बात. कहने का अर्थ ये कि जो कुछ किसी को प्राप्त था हिंदी समझ कर बोलने या लिखने का वो सब कुछ लेखिका ने समेट कर रख लिया था अपनी भाषा की डलिया मेँ. मैं पृष्ठ ७२ पर थोड़ा रुका.वहां जीवन की मानवेतर प्रासङ्गता को, जीवन की सार्वभौमिक चेतना में एक साथ लिपटे हम सब- मनुष्य, जीव, प्राणी सभी की आपसी, कथित या अकथित, स्थिति-विनिमय को सेलिब्रेट करते लेखिका ने कहा: "लालवन में दिन दहाड़े या रातों रात रिवायत बदल गयी - गौरैया डर का पर्याय बन गयी . रिवायतों में स्मृति समा जाती है ....... तो स्वभाव आदत बना ... आदत ही रिवायत है". गौरैया , कौव्वे, मनुष्य, मैं, तुम, वोह, अम्माँ, भैय्या, रोज़ी-रज़ा नामक शख्स, जो प्यारा है और जो न ये है न वो. और वो सब जो इनकी ज़िन्दगी में आते जाते हैं . ये सब पात्र आपस में जुड़े हुए; अंदर से सब मिले हुए हैं किस्सागोई में. "लोग मानने को नहीं तैयार कि किस्से सच्चे होते हैं. अतिरंजनायें, अयथार्थ, मिथक, सब. सच नहीं तो वो किस्सा जो यथार्थ की थोथी समझ में सच माना जाता है. " (पृ सं ३५५).और मेरे पृष्ठ सं ७२ पर पहुंचते ही पुस्तक को पुरुस्कार मिल गया. घोषित हो गया. इंग्लिश टी के साथ केक के दो पीस. आम लोगों ने लेखिका को बधाई दी. मैंने सोचा मैं तो बधाई में पूरा उपन्यास पढूंगा और अपनी छोटी बात लिखूंगा. लिख रहा हूँ.दिखे ज़ीनिया. कुछ किताब मेँ - कुछ बाहर. अनेकों अनेक भीगे सूखे झुकते और गुलदाउदी मानिंद गर्मियों के फूल. अरे किसे ढूंढें इस नैरेटिव के लिए!! क्या जौनरा है यह? किसे दाद दें हर शेर पर!! लेखक को या शब्दों को जो खुद ही आ कर बोल गए इक गाथा नयी पुरानी. तेरे मेरे दिल की बात. किताब पढ़ते लगता कि बातें करने लग गया हूँ. यशपाल का 'चक्कर क्लब' या 'बात बात मेँ बात', गाबो की बेहिचक अतिरंजनायें, ईद के मेले से लौटता नन्हा हामिद, उमरों के मांझे को लपेटती नई कहानी, फ़िक्र तौंसवीं के प्याज़ के छिलके, रैप की शाब्दिक मटरगश्ती, निर्मल वर्मा की मशहूर बिल्ली जो धूप बन दबे पाओं आयी. दोस्त की चिट्ठी है … … धीरे धीरे पढूंगा इसे रोज़ थोड़ा सा खाने के बाद. बस एक गुलाबजामुन. इस हफ्ते की शब्द-यात्रा मेँ लगभग हर पूर्णविराम पर एक बच्चा मिला करता. शैतान की टूटी!! फैली सी आँखों मेँ इमपिश मस्ती, होंठ गोल हंसी रोक सीटी सी बजाते कह रहे हों: मज़ा आया न!! आधे अधूरे नए वाक्य जिनका सिंटेक्स केवल शब्द हों या दो पूर्ण विरामों के बीच शब्दों की कतार. यह भाषा लेखक ने उठा उठा के रिकॉर्ड की है. बनाई तो हम सबने न!! पैंतालीस साल पहले मेरी पहली प्रोफेशनल ट्रेनिंग मेँ हमें हमारे वादविवाद का वीडियो दिखाया जाता था. हंगामें मेँ बुद्धिजीविता का हल्का हल्का एहसास. वो हुआ होता था. उसकी सम्पूर्णता हमारी योग्यता होती थी. एक कहानी यह भी जो अपनी इम्पर्सनल लीक से हट कर दिल को उचक उचक कर छूने लगी थी. परिवार की सभी उम्रों, यादगारों से बनी रिवायतों से या संस्कृति से आये शब्द जानदार वक्ता हैं कहानी के: " क्या ऐसा हो सकता है कि दीवार आगे बढ़ती आये और पीठ पीछे तक, बिस्तर पर पड़ी औरत को घेर ले, ताकि उस पर कोई दस्तक न पड़े?”(पृ सं ३२). कोई सोच सोचती है इन शब्दों के माध्यम से एक ऐसी सर्रियलिस्ट संभावना जो व्यक्त कर सके बूढी अम्मा के स्व-जग-निर्वासन को? बूढी माँ अपनी ज़िन्दगी को जियें नहीं इस लिए उसे अंदर ही अंदर घुटाती जा रही हैं. पर इससे भी कुछ ज़्यादा. दीवार को तो रहना ही है. अम्मा को नहीं. तो जिसे रहना है वह समेट ले न न-रहने वाले को!कहानी आगे बढ़ती है. न केवल अम्माँ की वृद्धावस्था का अगला पड़ाव; पर अम्माँ तो उपन्यास का केंद्र है; आई ऑफ़ द स्टॉर्म; पर वह सारा माहौल आगे बढ़ता है, जिसमें गौरैया सोचती है बोलती है, कौवे नोट्स लेते हैं और सूचना वाहक बनते हैं, घर वाले एक दूसरे से हस्ब-मामूल प्यार, ईर्ष्या, द्वेष, पर प्रायः आदर-सत्कार और मानवता वादी व्यवहार करत हैं. अम्माँ जब जीवन के धरातल पर वापिस आती हैं तो एक गति ले कर सीमाओं को आगे बढ़ाती, मानव इतिहास और सृष्टि से सीखे प्रश्नों को स्वयं का प्रसंग दे कर फिर से पूछती हैं. रोज़ी या रज़ा- जो न मर्द है न औरत, पर जो है , और जो प्यारा है (बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटक "सचेजुअन का अच्छा व्यक्ति" की शेन ते और शुई ता -- दोनों दोनों को ज़रा छूते ) , जिसके वजूद को वह अहमियत हासिल नहीं जो हमें है. क्यों? अम्माँ रोज़ी के अधूरे काम को पूरा करना चाहती है. अम्मा सीमा पार कर उन सबको मिलना चाहती है जो अहम् रहे हैं उसकी ज़िन्दगी में. हमारी ज़िन्दगी में भी. जो दर्रा- ए- खैबर पार कर हिंदुस्तान आये. न किसी राजनीतिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक या मानवतावादी भाव से पर स्वयं को अस्तित्त्व के भोलेपन से आलोड़ित सहज भाव से.ब्रोनिस्ला मालिनोवस्की नामक एक नृतत्त्वशास्त्री ने जनजाति अध्ययन की एक पद्धति सुझाई थी: इमपॉन्डेरेबिलिआ ऑफ़ एवरीडे लाइफ अर्थात जनजाति समाज के हर व्यक्ति की दिनचर्या के महीन से महीन पक्षों को देखो, समझो, रिकॉर्ड करो, तभी उनके जीवन की अनुभूतियों को जान सकोगे. एक साहित्त्यकार भी वही करता है पर इस स्वतंत्रता और रचनाधर्मिता के साथ कि देखे और अनुभवित यथार्थ को वह नए और बहु आयामी विस्तार दे सके. इस पुस्तक की एक विशेषता है कि इसमें यथार्थ को स्वयंभू बना कर उसे स्वयं में ही बहु विस्तार दिया गया है. एक उदाहरण: "दादी ने , न जाने कब, नई छड़ी उठा ली थी और , लेटे लेटे उसे यों , नब्बे के कोण पे सीधा ताने , आंखें मूंदे बुत बनी पड़ी थी, परलौकिक प्रतिमा लगती. छड़ी हवा में सीधी सतर, पर पहले कि सिड हँसे, कोई चुटकला बांचे, उधर से स्वर आया - मैं कल्पतरु. / घर में बसे बाकी भगवानों से इसकी प्रेरणा मिली थी या क्या कहाँ से , कोई नहीं जानता, क्योंकि बहुत कुछ है जो कोई नहीं जानता ". (पृसं ७६) और आगे: " .. इस गाथा की औरत अगर उस पल के अलावा किसी पल में, और कहीं और, अपनी नई छड़ी का नया इस्तेमाल ,... करती, तो जो हुआ न होता शायद, और जो इस हुए के पीछे होता गया , वह भी न होता." फिर लीलावती, जो घर आंगन और बाहर कल्पतरु विस्तार के प्रसंग के साक्षी थी बोली: " कि हमारे चमोली के पास है कल्पतरु .... दुनिया के हर कोने से लोग उसे पूजने आते हैं." ( पृसं ७८). अगले ही चरण में: " लोग कतार बना कर, हाथ जोड़के खड़े हो गए ..." ".धन्नो के बेटा हो मां जी .. लाल्टू के इहाँ टूबवेल लग जावै ..." "दिन भर से सबकी अर्चना याचना सुनते सुनते कोई थक जाए , इस तरह कल्पतरु की डाल, उर्फ़ छड़ी, फर्श पर गिरी. " (पृसं ८२-८३). कई मीलों के यथार्थ और कल्पना के गड्ड मड्ड सफर को जीती यह कहानी रात की उस अँधेरी गली में पहुंचती है जहाँ फैसला होना होता है. दूर खैबर के पास. जहाँ वतन और देश में फासला खत्म हो जाता है; तारा या बहुत पुरानी युवती अम्मा का अनवर से मिलन पूरा होता है; कल्पतरु का मूल दंड- अम्मा की छड़ी, सदियों से बेख्वाब किवाड़ों को बेमुक़फुल्ल कर, अम्मा के पास चुप चाप लेट जाती है : "....बहुतों ने देखा उसे शाहीन सा उड़ते और फिर मल्लिका सी हवा में लेट जाते .. और उस सुकून की मुद्रा में उसने अपनी छड़ी झटकी तो वो चट चट चट बंद होती चली गयी ....और वो खुद नीचे अपनी धरती पर उतर गयी." (पृ सं ३५७).और बहुत कुछ लिखा जायेगा इस किताब पर. ज़रूरी नहीं कि हर को हर बार वही दिखाई पड़े जिस से वह वाकिफ है. जो दिखा और समझा गया मुझ पाठक द्वारा वह मेरा हो गया; जो तुम्हें नज़र आये, नया या किसी पुराने से गलबहियां डाले, वह तुम्हारा. अपनी परंपरा अपनी पूँजी अपना आनंद और हम सब को जोड़ती एक पुस्तक. हम लोग.के एल खन्ना
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